Page 5 - CH- PRITHIBYAM TRINI RATNANI (LIT)LN
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SLOK-7
अषप स्ििथम्ी लङ्कय न मे लक्ष्मि रोचते ।
जननी जन्मभूसमश्च स्िगयदषप गरी्सी ।
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पदच्छद :- अषप स्ििखम्ी लङ्िय न म लक्ष्मि रोचत जननी जन्मभूलमैः च स्िगयत् अषप गरी्सी ।
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अन्ि्ैः – ह लक्ष्मि ! स्ििखम्ी अषप लङ्िय म (मह््) न रोचत । ्तो दह जननी जन्मभूलमैः च
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स्िगयत् अषप गरी्सी (भिनत) ।
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भयियिथ:- श्रीरयमैः लक्ष्मििं िि्नत ्त् ह लक्ष्मि ! ्द््षप िय स्ििखम्ी अन्स्त तियषप लङ्िय्य
ननियसैः न मह््िं रोचते, ्तैः जननी जन्मभूलमैः च इनत द्ि् स्िगयत् । अषप श्रष्ठम् अन्स्त । अत:
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मयतृभूमौ ननियसैः उथचतैः ।
शब्दयियथ:- अषप भी।
स्ििखम्ी – सोने से ननलमखत।
मे – मुझे ।
रोचते – रुथचिर लगती ह।
स्िगयखदषप – (स्िगयत्+अषप ) – स्िगख से भी।
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गरी्सी- – बढ़िर |
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सरलयिथ :- ह लक्ष्मि! स्ििखननलमखत भी लङ्िय मुझे रुथचिर नही लगती ह। (ियरि कि) जननी और
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जन्मभूलम स्िगख स भी बढ़िर ह।
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SLOK-8
पुस्तकस्िय तु ्य षिद््य परिस्तगतां धनम्।
कय्थकयल समुत्पन्ने न सय षिद््य न तद्धनम्॥
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पदच्छद :- पुस्तिस्िय तु ्य षिद््य परहस्तगतिं धनम् िय्खियल समुत्पन्ने न सय षिद््य न
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तद् धनम्।
अन्ि्ैः – पुस्तिस्िय तु ्य षिद््य ( अन्स्त), परहस्तगतिं (च ्द्) धनम् (अन्स्त), (तद् उभ्म्
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अषप ) िय्खियल समुत्पन्ने (सनत ) – न सय षिद््य न (च) तद् धनम् (स्िस्् उप्ोगय्
भिनत ) ।