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चुनौती स्िीकाि की ह। अज्ञान ऱूपी अन्धकाि ि ् तनिाशा की नदी को पाि किने क े सलए प्रेम
ि ् आशा ऱूपी नाि भी हम मनुटयों ने ही तैयाि की र्ी।
काव्ाांश –3
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बहाते चलो नाि तुम िह तनिति
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कभी तो ततसमि का ककनािा समलगा।
युगों से तुम्ही ने ततसमि की सशला पि
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ददय अनचगनत है तनिति जलाए,
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समय साक्षी है कक जलते हए दीप
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अनचगन तुम्हाि पिन ने बुझाए।
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व्याख्या –
कवि कहता है कक अज्ञान ऱूपी अंधकाि की नदी को पाि किने क े सलए तुमने जो ज्ञान ऱूपी
ददए से नाि बनाई है उस नाि को लगाताि चलाते िहना, कभी न कभी तो अज्ञान ऱूपी
अन्धकाि की नदी का ककनािा समल ही जाएगा। कहने का आशय यह है कक ज्ञान क े िास्ते
पि चलते चलते एक न एक ददन अज्ञान से मुष्क्त समल ही जाती है इससलए कवि-लगाताि
ज्ञान क े पर् पि चलने को कह िहा ह। प्राचीन काल से अज्ञान, स्िार्ि ि ् लालच जैसी
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बुिाइयों से परिपूणि अन्धकाि की चट्िान पि तुमने ज्ञान ि ् संघषि क े ददप जलाए ह। इस बात
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का समय गिाह िहा है कक तुम्हाि उन ज्ञान ि ् संघषि क े दीयों को अज्ञान, स्िार्ि ि ् लालच
ऱूपी हिाओं ने बुझाया ह। कहने का आशय यह है कक ज्ञान ि ् संघषि को अज्ञान, लालच,
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स्िार्ि जैसी बुिाइया अक्सि समिाने का प्रयास किती िहती ह।
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काव्ाांश – 4
मगि बुझ स्ियं ज्योतत जो दे गए िे
उसी से ततसमि को उजेला समलगा।
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ददय औि तुफ़ान की यह कहानी
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चली आ िही औि चलती िहगी,
जली जो प्रर्म बाि लौ दीप की
स्िणि-सी जल िही औि जलती िहगी।
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िहगा धिा पि ददया एक भी यदद
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कभी तो तनशा को सिेिा समलगा।
व्याख्या –
कवि कहते हैं कक ज्ञान ऱूपी दीपकों को अज्ञान ऱूपी हिाओं ने बेशक बुझा ददया पिन्तु स्ियं
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बुझ कि भी उन दीपकों ने ज्ञान ऱूपी प्रकाश फलाया। उन्हीं दीयों से अन्धकाि को उजाला
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समलगा। कहने का आशय यह है कक ज्ञान ऱूपी मागि ददिाने िाल महापुरुषों को अज्ञानी ि ्
पािंडडयों ने मििा ददया या झूिा साबबत कि ददया ष्जसक कािण कई वििोचधयों ने हम पि
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शासन ककया ककन्तु उन्हीं महापुरुषों क े ज्ञान को सीि ऱूप में लकि नई पीदढ़यों ने अज्ञान
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