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काव्ाांश 1–
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जलाते चलो ये ददय स्नेह भिभि-
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कभी तो धिा का अाँधिा समिगा ।
भले शष्क्त विज्ञान में है तनदहत िह
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कक ष्जससे अमािस बन पूर्णिमासी-,
मगि विश्ि पि आज क्यों ददिस ही में
तघिी आ िही है अमािस तनशा सी।-
व्याख्या –
कवि कहता है कक यदद हम ददए जलाते िहग तो कभी न कभी इस धिती का अन्धकाि
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अिश्य समि जाएगा। कहने का आशय यह है कक कवि लोगों को ज्ञान ऱूपी दीयों में प्रेम ऱूपी
तेल भिभि कि डाल कि जलाने को प्रेरित कि िहा है क्योंकक कवि क े अनुसाि ज्ञान औि -
प्रेम से कभी न कभी तो इस धिती की नफ़ित औि बुिाइया समाप्त होंगी। कवि कहता है
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कक भल हीी विज्ञान में अमािस्या को भी पूर्णिमा जैसा प्रकाशमान बनाने की शष्क्त
विध्यमान है, पिन्तु ितिमान में ददन क े समय ही ऐसा प्रतीत हो िहा है जैसे अमािस्या जैसा
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अन्धकाि तघि िहा ह। कहने का असभप्राय यह है कक आज विज्ञान ने इतनी उन्नतत कि ली
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है कक अमािस्या जैसी अाँधेिी िात में पूर्णिमा जैसा उजाला किना संभि ह। विज्ञान ने अनेक
सुिसुविधाओं का तनमािण ककया ह। पिन्तु इतना उन्नत होने पि भी आज विश्ि में -
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अमािस्या जैसा अन्धकाि फला हआ है, अर्ाित प्रक ृ तत से लगाताि र्िलिाड किने ि ्
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विनाशकािी हचर्यािों क े तनमािण क े कािण हि ओि दुुःि ि ् तनिाशा का माहौल ह।
काव्ाांश –2
बबना स्नेह विधुतददय जल िह जो-
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बुझाओं इन्ह, यों न पर् समल सकगा।
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जला दीप पहला तुम्ही ने ततसमि की
चुनौती प्रर्म बाि स्िीकाि की र्ी,
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ततसमि की सरित पाि किने तुम्ही ने
बना दीप की नाि तैयाि की र्ी।
व्ाख््ा –
कवि कहता है कक ये जो बबना प्रेम क े बबजली क े ददए जल िह हैं इन्ह बुझा दना चादहए
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क्योंकक इनसे िास्ता नहीं समल सकगा। कहने का आशय यह है कक आज विज्ञान ने िोशनी
फलाने िाल कई उपकिण बना ददए ह। उन उपकिणों से क ृ बिम प्रकाश तो समल सकता है
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ककन्तु सही िास्ता ददिाने िाला ज्ञान ऱूपी प्रकाश नहीं समल सकता। इससलए कवि उन्ह बुझा
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कि ज्ञान ऱूपी प्रकाश िाल दीपक जलाने को कह िहा ह। कवि कहता है कक जब अन्धकाि ने
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चुनौती दी र्ी तब तुमने ही पहली बाि दीप जलाकि उसकी चुनौती को स्िीकाि ककया र्ा।
अन्धकाि की नदी को पाि किने क े सलए तुमने ही तो ददप की नाि बना कि तैयाि की र्ी।
कहने का आशय यह है कक प्राचीन काल से हम मनुटयों ने ही तो अज्ञान ऱूपी अन्धकाि की