Page 3 - LESSON NOTES - TOPI SHUKLA - 1
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पड़कर लोग यह भल जात ह िक दोनों ही दध दन वाल जानवरों को चराया करत थ।
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दोनों ही पशपित, गोवधन और ज म रहन वाल कमार थ। इसिलए लखक कहता ह िक
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टोपी क िबना इ न और इ न क िबना टोपी न कवल अधर ह ब यह बमानी
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कही जायगी। इसिलए इ न क घर चलना ज़ री ह। यह दखना ज़ री ह िक उसकी
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आ ा क आगन म कसी हवाए चल रही ह और पर राओं क पड़ पर कस फल आ रह े
ह। अथात इ न ा सोच रहा ह।
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त पाठ म लखक टोपी की कहानी पाठकों को सनाना चाहत ह। इसिलए
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लखक कहता ह िक वह इ न की कहानी परी नहीं सनाएगा ब कवल उतनी ही
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सनाएगा िजतनी टोपी की कहानी क िलए उस ज री लग रही ह। यह जान लना चािहए
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िक न तो टोपी इ न की परछाई ह और न इ न टोपी की परछाई ह। य दोनों ही
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इस कहानी क दो आज़ाद ह। एक का नाम बलभ नारायण श ा ह और दसर
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का नाम स द जरगाम मरतज़ा । एक को सभी ार स टोपी कह कर पकारत ह और
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दसर को इ न ।
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लखक कहता ह िक इ न क दादा और परदादा इ ाम धम क ब त िस आचाय
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थ। गर म म दश म पदा ए। और गर म म दश म ही मर। उनकी आ ा न े
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िहद ान म एक सास तक नहीं ली। उस खानदान म जो पहला िह द ानी ब ा पदा
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आ वह इ न क िपता थ।
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इ न की दादी म म होत ए भी िह द धम का अनसरण कर रही थी। इ न की
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दादी परब की रहन वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी ई और वह
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लखनऊ आ गई, पर जब तक िज़दा रही, वह परब की ही भाषा बोलती रही।
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लखनाऊ की उद तो उनक िलए ससराल की भाषा थी। उ ोंन तो मायक की भाषा को
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ही गल लगाए रखा था ोंिक उनकी इस भाषा क िसवा उनक आसपास कोई ऐसा नहीं
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था जो उनक िदल की बात समझ पाता।
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इ न की दादी िकसी इ ामी आचाय की बटी नहीं थी ब एक जमींदार की बटी
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थी। दध-घी खाती ई बड़ी ई थी पर लखनऊ आ कर वह उस दही क िलए तरस
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गई थी जो घी स भरी ई काली िम ी क छोट गोलाकार बरतन म असम क ापारी
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लाया करत थ। जब भी वह अपन मायक जाती तो लपड़-शपड़ अथात िजतना उसका
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मन होता, जी भर क खा लती। ोंिक लखनऊ वािपस आत ही उ िफर मौलिवन बन
जाना पड़ता।