Page 2 - LN-EK PHOOL KI CHAHA-1
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               तेज बुखार क कारण िुवखया का गला िूख गया था। उिमें कछ बोलने की शवक्त नहीं बची थी।
                                                                 ु
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               उिक िार अग ढील पड़ चुक थ। िही ाँ  दूिरी ओर िवखया क वपता ने तरह तरह क उपाय करक                 े -
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                देख वलए थे, लेककन कोई भी काम नहीं आया था। इिी िजह िे िह गहरी चचता में मन मार क
                                                                                ू
               बैठा था। िह बेचैनी में हर पल यही िोच रहा था कक कहीं िे भी ढिंढ क अपनी बेटी का इलाज
                                                                                    े
               ले आए। इिी चचता में कब िुबह िे दोपहर हुई , कब दोपहर ख़त्म हुई और वनराशाजनक शाम
               आयी उिे पता ही नहीं चला।
               कवि बता रहे हैं कक ऐिे वनराशाजनक माहौल में अिंधकार भी मानो डिने चला आ रहा है।


                                                                          े
               वपता को ऐिा प्रतीत हो रहा है कक इतनी छोटी िी बच्ची क वलए पूरा अिंधकार ही दैत्य बनकर          -

                                                                                                   े
                   चला आया है। वपता इि बात िे हताश हो चुका है कक िह अपनी बेटी को बचाने क वलए कछ
                                                                                                           ु
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                       भी नहीं कर पाया। इिी वनराशा में ििंध्या क िमय आकाश में जगमगाते तार भी वपता को

               अिंगारों की तरह लग रहे हैं। वजििे उनकी आिंखे झुलि िी गई हैं।वपता को यह देखकर बहुत कष्ट       -

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                      हो रहा है कक उिकी बेटी जो एक पल क वलए भी कभी शािंवत िे नहीं बैठती थी और हमेशा
                                                                               े
                उछलकद मचाती रहती थी, आज चुपचाप वबना ककिी हरकत क लेटी हुई है। िो यहााँ िे िहािं
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                                                                                   े
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               शोर मचाकार मानो पूर घर में जान फक देती थी , लेककन अब उिक चुपचाप हो जाने िे पूर              े

               घर की ऊजाष िमाप्त हो गई है। वपता उिे बार बार उकिा कर यही िुनना चाह रहा है कक उि              े -
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               देिी मााँ क प्रिाद का एक फल चावहए।
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               दूर ककिी पहाड़ी की चोटी पर एक भव्य मिंकदर था। वजिक आाँगन में वखले कमल क फल िूयष की
               ककरणों में ऐिे प्रतीत हो रहे हैं , मानो िोने क कलश हों। मिंकदर पूरी तरह िे दीपकों िे िजा
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               हुआ था और धूप िे महक रहा था। मिंकदर में चारों ओर मिंत्रो एििं घिंटटयो की आिाज़ गूाँज रही


               थी। ऐिा प्रतीत हो रहा था, मानो मिंकदर में कोई उत्िि चल रहा हो।

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               भक्तों का एक बड़ा िमूह पूरी श्रद्धा एि भवक्त क े िाथ देिी मााँ का जाप कर रहा था। िभी एक

               िाथ  एक  स्िर  में  बोल  रहे  थे ‘पवतत  ताटरणी  पाप  हाटरणी,  माता  तेरी  जय  जय  जय।’ यह

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               िुनकर ना जाने उि अभाग वपता क े अिंदर भी कहााँ िे ऊजाष आ गई और उिक मुख िे भी वनकल
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