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               वनकमार् में कववता का साि:

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               प्रस्तत कपवता में तलसीदास जी ने तबका प्रसग बताया है, जब श्रीराम, लक्ष्ण और सीता
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                                                                          े
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               जीवन वास क े पलए पनकल थ। नगर से थोडी दर पनकलत ही सीताजी थकगईों, उनक माथ                     े
                                                                े
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               पर पसीना छलक आया और उनक होोंठ सखन लग। जब लक्ष्णजी पानी लन जात हैं, तो
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               उस दशा में भी वे श्रीरामस पड क े नीच पवश्राम करनक पलए कहती ह। रामजी उनकी इस
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               दशा को दखकर व्याकल हो उठत हैं और सीताजी क े परोों में लग काट पनकालन लगत हैं ।
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               यह दखकर सीताजी मन ही मन अपन पपत क े प्यार को दखकर पलपकत होन लगती ह।
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               सीताजी अभी नगर से बाहर पनकली ही हैं पक उनक माथ पर पसीना चमकन लगा ह।
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               इसीक साथ-साथ उनक मधर होोंठ भी प्यास से सखन लग हैं । अब वे श्री रामजी से पछती
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               हैं पक हम अब  पणकटी ( घास-फसकीझोोंपडी )  कहाँबनानी है ।
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               परत पनकसीों  रघबीर – बध, धरर धीर दए मग मड गद्व।
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               झलकीों भरर भालकनी जलकी, पट सक्तख गए मधरा धरव।।
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               पफरर बझपतbहैं, “चलनो अब क े पतक, पनकपट कररह ों   पकतह्व?”
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               पतय की लक्तख आतरता पपय की अँक्तखयाँअपत चारु चलीों जलच्व।।
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