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“जल को गए लक्खन, हैं लररका पररख ों, कपय! छाँह घरीकह्व ठाढ।l
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पोोंकछ पसउ बयारर कर ों, अरु पाय पखाररह ों, भभरर-डाढ।।”
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तलसी रघबीर किया श्रम जाकन कबकठ कबलबल ों कटक काढ।
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जानकीों नाह को नह लख्यो, पलको तन, बारर श कबलोचन बाढ।।
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वन क े मार् में द्वितीय पद अर् सद्वित :- इस पद में श्री लक्ष्णजी पानी लन जात हैं, तो
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सीताजी श्री राम से कहती हैं कक स्वामी आप थक गए होोंग, अतः पड़ की छाया में थोड़ा
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किश्राम कर लीकजए । श्री रामजी उनकी इस व्याकलता को दख कर कछ दर पड़ क े
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नीच किश्राम करत हैं तथा किर सीता जी क े परोों से काट कनकाल ने लगत हैं । अपन े
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कियतम क े इस प्यार को दखकर सीता जी मन ही मन पलककत याकन खश होन लगती
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